प्राचीन मतानुसार 'रामायण' और 'महाभारत' कालीन स्त्रियां किसी भी स्थान पर पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजन्ता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है।
मुगल जब भारत आए तब यह प्रथा उन्हीं के द्वारा प्रचलित हुआ है । हमारे सनातन संस्कृति और हिन्दू धर्म में कहीं पर भी घूंघट का रिवाज था ही नहीं कभी ।
फिर भी यह रिवाज हमारे भारत देश के कई हिस्सों में अभी भी कायम है । यह प्रथा एक स्त्री की स्वतंत्रता का हनन है और उसके स्वाभिमान का भी ।
इस प्रथा के ऊपर मेरी आज की यह कविता आप सभी को पेश करती हूं 🙏
🎆 घूंघट 🎆
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
घूंघट नहीं रही अब अनमोल ओ गोरी
देश दुनिया बदल गई है
अभी भी हो तुम चंदा चकोरी
नया युग है आदर सम्मान करो
अब मीठे बोल री ओ छोरी
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
छोड़ रिवाज घूंघट का
घर से बाहर निकल ओ गोरी
अपने पैरों पर खड़े हो कर
स्वाभिमानी बन जा ओ गोरी
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
लज्जा नारी का धर्म कहलाये
घूंघट से लज्जा हो नहीं जरूरी
अपनेपन के व्यवहार से जीत ले
सारे समाज का सम्मान ओ गोरी
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
बड़ों का आदर कर ले ओ गोरी
लाज शरम आंखों में रख ले
चली आई ये पुरानी रीत सदा की
सब बेड़ियां तोड़ अब ओ गोरी
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
घूंघट रखने से अत्याचार नहीं होता
क्या साड़ी में बलात्कार नहीं होता
अपनी सुरक्षा आप कर बन सबला
दुष्टों का सामना अब तुम करो ओ गोरी
घूंघट के पट खोल ओ गोरी
घूंघट नहीं रही अब अनमोल ओ गोरी
लेखिका :- मोना चन्द्राकर मोनालिसा✍🏻
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